शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

श्रम की कीमत



बहुत बार हम चाहते हैं –
कि सड़कों पर जलती रोशनी भी मुस्कुराए
इन सड़कों पर उड़ने वाले जुगनुओ मे भी
उजाले भर की रोशनी का खयाल आए
पर ऐसा होता नहीं –
मेरी रोशनी !
कभी पत्थरों का शिकार बनती
कभी कुछ चालबाजों के शिकारगाह का गवाह बनती
सड़कों पर बिखरती रोशनी
रात को रात के सौन्दर्य मे ढककर
काली रातो को उजली बनाने की जुगत मे रहती
हम !
सड़कों के किनारे वाले लैम्प पोस्ट
बोल न पाएँ
अपनी रोशनी घरो मे बिखेर न पाएँ
अपने श्रम को
उन्नति की शक्ल न दे पाएँ
इसलिए हमे दिया जाता है
गेहू...
दो रुपये किलो !!

मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

अर्थ रोटी और उसका भार




खुली आखों से दिखी
नटराज की प्रतिमा
विस्तीर्ण पथ पर
जिसकी आखों की गहराई से निकलता आकार
ढोलक की थाप पर समय जाता हार
जिसके हृद क्रोड़ मे नहीं प्रतिकार

नेत्रो कि भंगिमा और उसका प्रहार
शहस्त्र वीणा पर अर्थ की चित्कार
सुनाई पड़ता हर कही
पत्तों की खड्खड़ाहट पर
सिकती रोटी का राज
मै हम अहम का विस्तार यहा नहीं

सरपट घूमते चक्के पर
सर्जना का आकार
है यहा पर एक चित्कार
अर्थ रोटी और उसका भार !!!

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

समय

कुछ करूँ !
अब मेरी जड़े खोखली होती जा रहीं
एक दाना भीख का
मुट्ठियों के शिकंजे में कसता
उस दाने की दरयाफ्त सुनूँ
की चरमराहट की आवाज के साथ
पिसते दानो पर
भूख का भार बढ़ रहा

अब तो कुछ करूँ !
की चमड़े की महक
भ्रम पैदा करती
निर्माण और उपभोग के बीच
वह भीतर ही भीतर सुराख़ बढाती
पैबन्दो के

जड़ो में पड़ती पानी की पतली धार
कि उन सूराखो में
कि उन गलियों में
आखों की नमी नहीं सूखती

उन भीख के दानो से भूख नहीं मिटती
बढती है ज्वाला ओहदों की
फैले हुए हाथ
कसती मुट्ठिया
खोखली पड़ती जड़े
और अपने रसूख से कटते लोग
दीखते हैं -
बाजार पर बसर बनाये  हुए !!!

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

Conditions apply !!

अब भी
चौराहों पर बालक खड़े हैं
भूखे

अब भीघूँघट में मुखड़ा छुपाये
पनिहारिन  दूर तक जाती है

कोई पलक टकटकी लगाये
आज भी किसी का बाट जोहती  है

आसमान का नीला फलक
आज भी
अपनी और उठने वाली नजरो से
बिंध जाता है

आज जबकि "सब है" का दम भरते
बेदम पड़े कुछ पस्त आम
बिलकुल चूस कर फेक दिए गए है
चारो तरफ है इश्तिहार
और नीचे छपा है-
Conditions apply !!!

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

हम-तुम

हर गली से एक बस्ती गुजरती
खड़ी हु उस मोड़ पर
जहा -
दो गलिय मिल जाती

सूखे पत्तो पर से गुजरती सरसराहट
और मौन खड़ी दो पाटिया
कैसे होगा फसलो के दरम्या ये रिश्ता ?

मेरी खामोसी कुछ कहना चाहती है
मौन खड़ी दो पाटियो को जोड़ना चाहती है
पर
कविता कुछ ठहर सी गयी है
संवेदना जडवत हो गयी है
की वह दो पाटिया मौन ही है
खुश्क दोपहर सी
उखड्ती पपड़ियो सी
सूखे पत्तो का भूअराया सावन अड़ा है
अपनी ही जगह

स्निग्धता और रूखेपन  की दो पाटिया
संतरे के फाको सी
जुड़कर भी अलग है
जैसे हम-तुम !!!

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

आखो का सच :बोलते - बोलते

इतना जीवन नहीं देखा मैंने
अब तक
शब्द और आखो में
जहा खुल जाती है सभी परीधिया
शब्द बोल जाते है अपनी बात
मानने न मानने  की दशा  में

सच होता है वह प्रतिऊतर
छंद सा छेड़ जाते है स्वर
और गीत लयबद्ध हो आखो से उतर आता है
यह देख मै भूल जाती जीवन की जटिलताये
तुम्हारी भंगिमा सच लगती
झूठे लगती अपनी बाते

सच में बोलती आखो और कुछ कहते शब्दों का
अपना अलग वर्ताव होता है
जो नहीं रहने देता मन को मन जैसा
वह रोज देखना चाहता , बोलना चाहता और सुनना चाहता है

आज सच लगती है वह बात जो सुना मैंने खंजन पक्षी के बारे में
अब देख लिया उस पक्षी को
अब देख लिया सब कुछ कह जाते शब्दों को
बोल ऐसे ही होते है
अनूठापन लिए खुद का
और जीती है आखे ऐसे ही
बोलते- बोलते !!!