सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

हम-तुम

हर गली से एक बस्ती गुजरती
खड़ी हु उस मोड़ पर
जहा -
दो गलिय मिल जाती

सूखे पत्तो पर से गुजरती सरसराहट
और मौन खड़ी दो पाटिया
कैसे होगा फसलो के दरम्या ये रिश्ता ?

मेरी खामोसी कुछ कहना चाहती है
मौन खड़ी दो पाटियो को जोड़ना चाहती है
पर
कविता कुछ ठहर सी गयी है
संवेदना जडवत हो गयी है
की वह दो पाटिया मौन ही है
खुश्क दोपहर सी
उखड्ती पपड़ियो सी
सूखे पत्तो का भूअराया सावन अड़ा है
अपनी ही जगह

स्निग्धता और रूखेपन  की दो पाटिया
संतरे के फाको सी
जुड़कर भी अलग है
जैसे हम-तुम !!!

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

आखो का सच :बोलते - बोलते

इतना जीवन नहीं देखा मैंने
अब तक
शब्द और आखो में
जहा खुल जाती है सभी परीधिया
शब्द बोल जाते है अपनी बात
मानने न मानने  की दशा  में

सच होता है वह प्रतिऊतर
छंद सा छेड़ जाते है स्वर
और गीत लयबद्ध हो आखो से उतर आता है
यह देख मै भूल जाती जीवन की जटिलताये
तुम्हारी भंगिमा सच लगती
झूठे लगती अपनी बाते

सच में बोलती आखो और कुछ कहते शब्दों का
अपना अलग वर्ताव होता है
जो नहीं रहने देता मन को मन जैसा
वह रोज देखना चाहता , बोलना चाहता और सुनना चाहता है

आज सच लगती है वह बात जो सुना मैंने खंजन पक्षी के बारे में
अब देख लिया उस पक्षी को
अब देख लिया सब कुछ कह जाते शब्दों को
बोल ऐसे ही होते है
अनूठापन लिए खुद का
और जीती है आखे ऐसे ही
बोलते- बोलते !!!