बुधवार, 4 अप्रैल 2012

समय

कुछ करूँ !
अब मेरी जड़े खोखली होती जा रहीं
एक दाना भीख का
मुट्ठियों के शिकंजे में कसता
उस दाने की दरयाफ्त सुनूँ
की चरमराहट की आवाज के साथ
पिसते दानो पर
भूख का भार बढ़ रहा

अब तो कुछ करूँ !
की चमड़े की महक
भ्रम पैदा करती
निर्माण और उपभोग के बीच
वह भीतर ही भीतर सुराख़ बढाती
पैबन्दो के

जड़ो में पड़ती पानी की पतली धार
कि उन सूराखो में
कि उन गलियों में
आखों की नमी नहीं सूखती

उन भीख के दानो से भूख नहीं मिटती
बढती है ज्वाला ओहदों की
फैले हुए हाथ
कसती मुट्ठिया
खोखली पड़ती जड़े
और अपने रसूख से कटते लोग
दीखते हैं -
बाजार पर बसर बनाये  हुए !!!