हर गली से एक बस्ती गुजरती
खड़ी हु उस मोड़ पर
जहा -
दो गलिय मिल जाती
सूखे पत्तो पर से गुजरती सरसराहट
और मौन खड़ी दो पाटिया
कैसे होगा फसलो के दरम्या ये रिश्ता ?
मेरी खामोसी कुछ कहना चाहती है
मौन खड़ी दो पाटियो को जोड़ना चाहती है
पर
कविता कुछ ठहर सी गयी है
संवेदना जडवत हो गयी है
की वह दो पाटिया मौन ही है
खुश्क दोपहर सी
उखड्ती पपड़ियो सी
सूखे पत्तो का भूअराया सावन अड़ा है
अपनी ही जगह
स्निग्धता और रूखेपन की दो पाटिया
संतरे के फाको सी
जुड़कर भी अलग है
जैसे हम-तुम !!!