बहुत बार हम चाहते हैं –
कि सड़कों पर जलती रोशनी भी
मुस्कुराए
इन सड़कों पर उड़ने वाले
जुगनुओ मे भी
उजाले भर की रोशनी का खयाल
आए
पर ऐसा होता नहीं –
मेरी रोशनी !
कभी पत्थरों
का शिकार बनती
कभी कुछ चालबाजों के
शिकारगाह का गवाह बनती
सड़कों पर बिखरती रोशनी
रात को रात के सौन्दर्य मे
ढककर
काली रातो को उजली बनाने
की जुगत मे रहती
हम !
सड़कों के किनारे वाले
लैम्प पोस्ट
बोल न पाएँ
अपनी रोशनी घरो मे बिखेर न
पाएँ
अपने श्रम को
उन्नति की शक्ल न दे पाएँ
इसलिए हमे दिया जाता है
गेहू...
दो रुपये किलो !!